पृष्ठ

शनिवार, 13 मार्च 2010

ओम पुरोहित ‘कागद’ री कवितावां…..

मा- १
घर मांय बी
निरवाळौ घर
बसायां राखै
म्हारी मा।
दमै सूं
उचाट होयोड़ी
नींद सूं उठ’र
देर रात ताणी
सांवटती रे’वै
आपरी तार-तार होयोड़ी
सुहाग चूनड़ी।
बदळती रे’वै कागद
हरी काट लागियोड़ा
सुहाग कड़लां
रखड़ी-बोरियै-ठुस्सी री
पुड़ी रा
लगै-टगै हर रात।

मा- २
साठ साल पै’ली
आपरै दायजै मांय आई
संदूक नै
आपरी खाट तळै
राख’र सोवै मा।
रेजगारी राखै
तार-तार होयोड़ी सी
जूनी गोथळी मांय
अर फेर बीं नै
सावळ सांवट‘र
राख देवै
जूनी संदूक मांय।
पोती-पोतां सागै
खेलतां-खेलतां
फुरसत मांय कणां ई
काढ’र देवै
आठ आन्ना
मीठी फांक
चूसण सारू।

मा- ३
मुं अंधारै
भागफाटी उठ’र
पै’ली
खुद नहावै
फेर नुहावै
तीन बीसी बरस जूनै
पीतळ रै ठाकुर जी नै
जकै रा नैण-नक्स
दुड़ गिया
मा रै हाथां
नहावंता-नहावंता।
मोतिया उतरयोड़ी
आंख रै सारै ल्या
ठाकुर जी रो मुंडौ ढूंढ’र
लगावै भोग
अर फेर
सगळां नै बांटै प्रसाद
जीत मांय हांफ्योड़ी सी।

मा- ४
टाबरां मांय टाबर
बडेरां मांय बडेरी
हुवै मा।
टाबरां मांय
कदै’ई
बडेरी
नीं हुवै मा।
पण
हर घर मांय
जरुर हुवै मा
रसगुल्लै मांय
रस री भांत।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें